भारत की युवा फिल्मकार पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमैजिन एज लाइट’ के कांस फिल्म समारोह के सबसे प्रतिष्ठित Palme d’Or (पाम डी’ओर) कैटेगरी में प्रदर्शित की जाएगी। इस फिल्म के चुने जाने के बाद से यहां बड़ी संख्या में युवा फिल्मकारों की आमद बढ़ गई है। भारत पवेलियन, कांस फिल्म बाजार और इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर एसोसिएशन (IMPPA), कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (CII) आदि की गतिविधियों में बड़े पैमाने पर युवा फिल्मकारों की भागीदारी देखी जा रही है। उनका उत्साह इसलिए भी है क्योंकि इस बार दुनिया भर से करीब 10 भारतीय फिल्मकारों की फिल्में कांस फिल्म फेस्टिवल के ऑफिशियल सेलेक्शन में शामिल हैं। कई तरह के सवाल उठाती है फिल्म
डायरेक्टर कमल चंद्रा की पहली ही फिल्म ‘हमारे बारह’ ने अपने अलग कंटेंट के कारण काफी तारीफ बटोरी है। फिल्म सवाल उठाती है कि इस्लाम धर्म की कौन सी व्याख्या सही है? बुनियादी सवाल यह है कि क्या औरत और मर्द के लिए इस्लाम अलग-अलग मानदंड अपनाता है? फिल्म का नायक एक सच्चा मुसलमान है और अपनी धार्मिक आस्थाओं से बंधा हुआ है। उसे जिंदगी ने अवसर ही नहीं दिया कि धर्म गुरुओं से आगे इस्लाम की प्रगतिशील परंपराओं को जान सके, समझ सके और अपना सके। इसलिए वह फिल्म का खलनायक तो कतई नहीं है। जब उसकी मूर्खतापूर्ण कट्टरता से उसकी बीवी बारहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान मर जाती हैं तो उसकी कब्र पर वह एकालाप करता है कि उसे इस्लाम के बारे में कुछ नया सीखने का मौका ही नहीं मिला। यहीं पर रुखसाना का वॉइस ओवर है कि मैं तो मरकर आजाद हो गई पर कई औरतों को दर्द की कैद में छोड़ गई। भारत पाॅवेलियन में भी ‘हमारे बारह’ पर चर्चा हुई
फिल्म ‘हमारे बारह’ में अन्नू कपूर और मनोज जोशी के अलावा सभी कलाकार नए हैं। कांस के फिल्म बाजार में इसका वर्ल्ड प्रीमियर हुआ। इस अवसर पर फिल्म के मुख्य कलाकार अन्नू कपूर, निर्देशक कमल चंद्रा और निर्माता संजय नागपाल, वीरेंद्र भगत और शिव बालक सिंह ने फिल्म के बारे में विस्तार से जानकारी दी। भारत पाॅवेलियन में भी ‘हमारे बारह’ पर चर्चा हुई। निर्माताओं ने इस फिल्म का नाम ‘हम दो हमारे बारह’ रखा था लेकिन सेंसर बोर्ड के दबाव के कारण इसे केवल ‘हमारे बारह’ करना पड़ा। ऊपर से ऐसा लग सकता है कि यह फिल्म मुस्लिम समाज पर सीधे-सीधे आरोप लगा रही है कि देश की आबादी बढ़ाने में केवल वहीं जिम्मेदार हैं। लेकिन आगे चलकर इस मुद्दे की पृष्ठभूमि में बिना किसी समुदाय की भावना को आहत किए कई मार्मिक कहानियां सामने आती हैं। फिल्म के निर्माताओं में से एक वीरेंद्र भगत का कहना है कि फिल्म के सभी चरित्र मुस्लिम है इसलिए इसमें हिंदू मुसलमान का एंगल देखना उचित नहीं है। संजय नागपाल कहते हैं कि जनसंख्या वृद्धि एक ग्लोबल मुद्दा है जिसे एक मार्मिक कहानी के माध्यम से उठाया गया है। लंदन और दुबई में भी होगा फिल्म प्रीमियर
कांस फिल्म फेस्टिवल के बाद लंदन और दुबई में भी इस फिल्म का प्रीमियर होना है। फिल्म के निर्माता रवि गुप्ता कहते हैं कि यह फिल्म इसी 6 जून को भारत और ओवरसीज में रिलीज होगी तभी दर्शकों की राय का पता चलेगा। मुस्लिम समाज की भावनाएं आहत होने की संभावना से शिव बालक सिंह साफ इंकार करते हैं। वहीं निर्देशक कमल चंद्रा का मानना है कि यह फैसला दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए। मुख्य कलाकार अन्नू कपूर कहते हैं कि सच कुछ भी हो पर हो सकता है कि मुस्लिम समाज इस सच को बर्दाश्त करने के लिए तैयार न हो। एक बात तो तय है कि अन्नू कपूर ने जमाने के बाद इतना शानदार अभिनय किया है। वे फिल्म के मुख्य चरित्र लखनऊ के कव्वाल मंसूर अली खान संजरी के किरदार में जैसे घुल मिल गए हैं कि लगता ही नहीं है कि वे अभिनय कर रहे हैं। मनोज जोशी ने भी मुस्लिम वकील की भूमिका में लाजवाब काम किया है। क्या है फिल्म की कहानी
लखनऊ के कव्वाल 60 साल के मंसूर अली खान संजरी ( अन्नू कपूर) के पहले से ही 11 बच्चे हैं। उनकी पहली बीवी 6 बच्चों को जन्म देकर मर चुकी है। वे अपनी उम्र से 30 साल छोटी रुखसाना से दोबारा निकाह करते हैं और 5 बच्चे पैदा कर चुके हैं। रुखसाना छठवीं बार गर्भवती हो जाती है। खान साहब गर्व से कहते हैं कि ‘यदि अगले साल मर्दुमशुमारी होगी तो इस घर में हम दो और हमारे बारह होंगे।’ इतना ही नहीं, खान साहब न तो खुद पढ़े हैं और न हीं अपने बच्चों को सरकारी या गैर सरकारी स्कूलों में पढ़ने देते हैं। उन्होंने अपनी सुविधा के हिसाब से इस्लाम की मनमाफिक व्याख्या कर ली है। समस्या तब खड़ी होती है जब लेडी डॉक्टर ऐलान कर देती है कि यदि रुखसाना का गर्भपात नहीं कराया गया तो वह बच्चे को जन्म देते समय मर सकती है। खान साहब की बड़ी बेटी अल्फिया हिम्मत करके उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक मुकदमा दायर करती हैं कि उसकी सौतेली मां को गर्भपात की इजाजत दी जाए। यहां से फिल्म नया टर्न लेती है और मुकदमे की सुनवाई के दौरान घर की चारदीवारी के भीतर की कई हृदयविदारक कहानियां सामने आती हैं कि घर के मुखिया की धार्मिक कट्टरता और इस्लाम की मनमाफिक व्याख्या के कारण करोड़ों भारतीय परिवारों में औरतों का सांस लेना मुश्किल हो रहा है। फिल्म ‘हमारे बारह’ एक पारिवारिक फिल्म है जिसे हर किसी को देखना चाहिए। बिना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए निर्देशक कमल चंद्रा ने साफगोई से अपनी बात कहने के लिए इमोशनल मेलोड्रामा का प्रयोग किया है। ‘हमारे बारह’ की कहानी भले ही मुस्लिम समाज पर बेस्ड है लेकिन इससे सबको सबक लेने की जरूरत है। लेखक: अजीत रॉय (वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक)