77वें कांस फिल्म फेस्टिवल में लीजेंड्री फिल्ममेकर श्याम बेनेगल की 48 साल पुरानी फिल्म मंथन की स्क्रीनिंग हुई। स्क्रीनिंग के बाद दर्शकों ने फिल्म को स्टैंडिंग ऑवेशन दिया है। फिल्म में लीजेंड्री एक्टर नसीरुद्दीन शाह अहम किरदार में थे। स्क्रीनिंग के बाद उन्होंने कहा है कि ये भारतीय सिनेमा के लिए एक गौरव का पल है। स्क्रीनिंग के बाद नसीरुद्दीन शाह ने फिल्म मंथन की टीम को याद करते हुए कहा है कि उनमें से कई लोग अब नहीं रहे, जिन्होंने मिल-जुलकर इस फिल्म को इस मुकाम पर पहुंचाया है। फिल्म के मुख्य कलाकारों में गिरीश कर्नाड, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी अब इस दुनिया में नहीं है। फिल्म की पटकथा लिखने वाले विजय तेंदुलकर और संवाद लिखने वाले कैफी आजमी भी इस दुनिया में अब नहीं हैं। गोविंद निहलानी ने मंथन की सिनेमैटोग्राफी की थी। संगीत वनराज भाटिया ने दिया था। इस अवसर पर बीमारी की वजह से श्याम बेनेगल नहीं आ सके। क्राउड फंडिंग से बनने वाली भारत की पहली फिल्म है मंथन नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि यह भारत की पहली फिल्म थी जो क्राउड फंडिंग से बनी थी। उस समय गुजरात के पांच लाख किसानों ने दो-दो रुपए का चंदा देकर दस लाख रुपए जमा किए थे। वर्गीस कुरियन ने 33 साल की उम्र में गुजरात के खेड़ा जिले के एक गांव में पहली बार दुग्ध उत्पादन की कॉर्पोरेटिव सोसाइटी बनाई थी, जो बाद में आनंद में अमूल कॉर्पोरेटिव सोसाइटी की बुनियाद बनी। नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि मंथन उनके करियर की दूसरी ही फिल्म थी। श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में सिनेमाई सौंदर्यबोध को नई ऊंचाई दी है। उन्होंने भारतीय सिनेमा को कलात्मक उंचाई दी है, जिसे हमेशा याद रखा जाएगा। उन्होंने कहा कि जब यह फिल्म रिलीज हुई तो वे काफी नर्वस थे क्योंकि इस फिल्म में न तो चमक-दमक थी, न नाच-गाना, न कोई खास एक्शन। फिल्म के सभी कलाकारों ने बहुत उमदा काम किया था। आज सालों बाद इस फिल्म को देखकर लगता है कि हमारी टीम कितनी गंभीर और प्रतिबद्ध थी। प्रतीक बब्बर ने किया मां स्मिता पाटिल को याद स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्बर ने कहा कि उन्होंने अपनी मां को कभी देखा नहीं, क्योंकि उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया था। उन्होंने अपनी मां को केवल सिनेमा के पर्दे पर ही देखा है। पहली बार कान फिल्म फेस्टिवल में भागीदारी पर उन्होंने कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे अपनी खुशी को कैसे जाहिर करें। 1 जून को 70 शहरों में रिलीज होगी मंथन मुंबई के शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की संस्था फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन ने इस फिल्म को हाई क्वालिटी में कान फिल्म फेस्टिवल को उपलब्ध कराया है। यह लगातार तीसरा मौका है जब इस संस्था द्वारा संरक्षित भारतीय फिल्में कांस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा रही है। कांस फिल्म फेस्टिवल द्वारा नसीरुद्दीन शाह और मंथन की पूरी टीम को सेरेमोनियल रेड कार्पेट दी गई। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने घोषणा की कि अगामी एक जून को मंथन देश के 70 शहरों में रिलीज की जाएगी। फिल्म को मिला स्टैंडिंग ऑवेशन फिल्म मंथन की स्क्रीनिंग के बाद यहां बुनुयेल थियेटर में देर तक दर्शक नसीरुद्दीन शाह के लिए खड़े होकर ताली बजाते रहे। यह फिल्म एक तरह से भारतीय सिनेमा का ऐतिहासिक दस्तावेज है। क्या है फिल्म की कहानी? डॉक्टर राव ( गिरीश कर्नाड) वेटनरी सर्जन हैं। वे अपने सहयोगियों, चंद्रावरकर (अनंत नाग) और देशमुख (डॉक्टर मोहन अगाशे) के साथ गुजरात के एक गांव पहुंचते हैं, जहां गरीब किसान दुध बेचकर गुजारा करते हैं। वे वहां सरकार की ओर से एक दुग्ध उत्पादन कॉर्पोरेटिव सोसाइटी बनाना चाहते हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान मिश्रा जी (अमरीश पुरी) को होता है जो एक निजी डेरी चलाते हैं और ग्रामीणों के दूध औने-पौने दाम पर खरीदकर शहर में ऊंचे दाम पर बेच देते हैं। गांव का सरपंच (कूलभूषण खरबंदा) पहले तो साथ देता है पर जैसे ही इसमें दलितों की भागीदारी बढ़ती है, वह मिश्रा जी के साथ मिलकर इनके दुश्मन बन जाते हैं और फिर साजिशों का दौर शुरू होता है। एक दलित यंग एंग्री मैन है भोला (नसीरुद्दीन शाह)। बहुत पहले एक शहरी ठेकेदार उसकी मां को गर्भवती बनाकर भाग गया था। भोला अमीरों और ऊंची जाति वालों से नाराज रहता है। डॉक्टर राव के कहने पर दलित एकजुट होकर चुनाव में सरपंच को हरा देते हैं। सरपंच बदला लेने के लिए दलित बस्ती में आग लगवा देता है। वह अपनी ऊंची पहुंच से डॉक्टर राव का तबादला भी करवा देता है। एक दलित लड़की से शारीरिक संबंध बनाने के बाद चंद्रावरकर को भी गांव छोड़कर जाना पड़ता है। डॉक्टर राव की पत्नी गांव आती है और बीमार पड़ जाती है। एक दलित हिम्मती महिला बिंदु ( स्मिता पाटिल) अपने छोटे बच्चे के साथ डॉक्टर​​ राव का साथ देती है। तभी उसका लापता पति वापस आ जाता है और डॉक्टर राव पर बदचलनी का आरोप लगाता है। अंत में हम देखते हैं कि डॉक्टर राव अपनी पत्नी के साथ निर्जन रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ रहा है और भोला दौड़ता हुआ आ रहा है। ट्रेन चल देती है। आगे की कहानी भोला की है कि कैसे वह साजिशों के बावजूद डेरी कॉर्पोरेटिव सोसाइटी बनाने में सफल होता है।